Tuesday, May 19, 2020

पुस्तक समीक्षा : खुब्लेई शिबुन चीड़वन (काव्य संग्रह) - माधवेन्द्र


'खुब्लेई शिबुन चीड़वन’ 2018, माधवेन्द्र, मानव प्रकाशन, कोलकाता, प्रष्ठ 116 

पूर्वोत्तर भारत, भारत की मुख्यधारा से बहुत भिन्न है। भारत, जिसे अनेकता में एकता के लिए जाना जाता है, इस क्षेत्र के अनेक तत्वों को अभी तक अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हुआ प्रतीत नहीं होता है। इस क्षेत्र की सभ्यता, संस्कृति, संस्कार व भाषा दूसरे क्षेत्रों से बहुत भिन्न हैं। पूर्वोत्तर के अलल-अलग राज्यों में भी अनेकता के दर्शन होते हैं। यहाँ की सभ्यता व सामुदायिकपन इस क्षेत्र की, व सम्पूर्ण भारत की एक विशिष्ट पूंजी है। भारत का यह भूभाग, इसकी विविधता, व नैसर्गिक सौन्दर्य, पूरे पूर्वोत्तर क्षेत्र को विशेष बनाता है। देश की राजनीति, अर्थनीति, व सामाजिक एकात्मता में भले ही इस क्षेत्र को प्राथमिकता प्रदान न की गई हो, परंतु शायद देश के अन्य पहाड़ी क्षेत्रों की भांति यहाँ का भी भूगोल, साहित्यकारों व पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रहा है। 

पूर्वोत्तर क्षेत्र के बारे में बहुत नकारात्मक प्रचार किया गया है। कई साहित्यकारों ने यहाँ के मुद्दों पर लिखा भी है, परंतु हिन्दी भाषा में उतना जितना अपेक्षित है, नहीं लिखा गया। अनुवाद के रूप में भी कुछ सार्थक प्रयास किए गए हैं। यह भी एक रोचक तथ्य है कि, भाषा की दृष्टि से इन कार्यों को आज के बाजारू वातावरण में यथोचित रूप से प्रचारित नहीं किया गया। ऐसा पूर्वोत्तर में रहने वाले कई हिन्दी भाषी निवासियों व साहित्यकारों का मानना है। यह यहाँ के लोगों का दर्द है, जो कभी-कभी अखबारों व पत्रिकाओं के माध्यम से देश के अन्य क्षेत्रों के पाठकों तक पहुंचता रहता है। हालांकि, ऐसा प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र को मुख्य धारा में लाने व उसका समग्र विकास एवं साहित्यिक एकीकरण, पिछले कुछ वर्षों में केन्द्रीय सरकार की विशेष प्राथमिकताओं में शामिल है। 

यह पूरा क्षेत्र अपने आप में एक कवित्त अभिव्यक्ति से अभिभूत है, यहाँ के पहाड़, नदियां, स्वच्छ मनमोहक झरने, स्वच्छंद बादल, नीला आकाश, फूल-पत्तियों की भिन्न प्रजातियाँ — उनमें समाहित विशिष्ट सुगंध, चिड़ियों द्वारा प्रदत्त संगीत आदि इत्यादि एक ओर जहां इस क्षेत्र को विशेष बनाते हैं वहीं दूसरी ओर एक कवि ह्रदय को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। मेघालय, सम्पूर्ण पूर्वोत्तर क्षेत्र में, अपने भूगोल, संस्कृति व आकर्षक पर्यटन स्थलों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यहाँ के चीड़वन यहाँ की संस्कृति का हिस्सा बन गए हैं — उनका एकीकृत विस्तार, घनापन, सीधापन, पैनापन, एवं समग्र-भाव। वर्ष २०१८ में माधवेन्द्र जी द्वारा रचित कविताओं का एक संग्रह — ‘खुब्लेई शिबुन चीड़वन’, मानव प्रकाशन, कोलकाता, से प्रकाशित हुआ, जो मेघालय के प्राकृतिक सौन्दर्य को एक अविस्मृत भेंट है। वे पिछले कई दशकों से पूर्वोत्तर क्षेत्र में, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से सम्बद्ध रहते हुए, हिन्दी के पठन-पाठन में कर्मठता से जुटे हैं। माधवेन्द्र जी ने इस संकलन को शिलांग के चीड़वनों की सुरीली हवाओं को समर्पित किया है और संकलन की सभी कविताएं इस भाव को बड़ी खूबी से दर्शाती हैं। ‘खुब्लेई शिबुन चीड़वन’ यानि खासी भाषा में ‘चीड़वनों के प्रति बहुत-बहुत धन्यवाद’; कवि का प्रकृति को धन्यवाद; मनुष्य का मनुष्यता के इन रूपकों को धन्यवाद। 

कवि की कल्पना-शक्ति व सृजन-शीलता, उसके जीवन के दर्शन को दर्शाता है। मेघालय के चीड़वन, पेड़, फूल, नदियां, झरने, पहाड़, व जंगल, वहाँ के निवासी, सामुदायिकता, सामाजिक परिवेश, संगीत, सड़कें, व पगडंडियाँ, आदि-इत्यादि इन कविताओं के विषय अवश्य हैं, परंतु ब्रहद स्तर पर, एक माध्यम से प्रतीत होते हैं, कवि के जीवन दर्शन को पाठकों, चिंतकों व विचारकों तक पहुंचाने का। कवि की संवेदनशीलता सराहनीय है, इस संकलन की सभी कविताएं इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। यहाँ का सामाजिक व प्राकृतिक परिवेश इन कविताओं का मूल प्रेरणा स्रोत है और यह कविताएं एक कटाक्ष भी प्रतीत होती हैं। जंगल का उदास होना कवि की पीड़ा है, और उसका कारण और भी पीड़ादायक है — ‘धूप इतनी अकेली/ तो बादल फटे होंगे/ आकाश से गायब हुई होगी चिड़ियों की उड़ान/ जंगल जो इतना उदास/ तो शामिल है इसमें ऊंची-ऊंची चिमनियाँ/ बड़े-बड़े बांध/ फरफराते ऊंचे झंडे हम सब के ...?’ (प्र० १२)। औद्योगिक प्रगति का जो मूल्य प्रकृति ने चुकाया है, शायद ही किसी ने चुकाया हो। पेड़, पहाड़, नदियां, फूल, सभी पूजनीय माने जाते रहे हैं। इस संकलन में वृक्ष शीर्षक की १० रचनाएं हैं, जो कुछ-कुछ समान होते हुए भी अलग-अलग संदेश देती हैं। ‘पल दो पल ही सही/ वृक्ष होना चाहता हूँ’ (प्र० ३०), क्योंकि ‘पेड़ है तो लगता है/ छाँह है दुनिया जहान में/ माँ पिता की तरह ... प्रेम, मुहब्बत का पूरा संसार हैं पेड़’ (प्र० ३५), और ‘पेड़ रंग ही नहीं, रंग का अहसास होते हैं’ (प्र० ३६), ‘पेड़ बनना बच्चा बनना है’ (प्र० ४०)। कवि अपने दर्द से भविष्य में उत्पन्न होने वाली सामाजिक संबंधों की समस्याओं को पेड़ों के रिश्ते के प्रतीक से कुछ इस प्रकार व्यक्त करता है — ‘पुरखे, पुरनिए की तरह/ अप्रासंगिक होते पेड़ों के बीच/ हर रिश्ता खतरे में है/ जब टूट सकता है रिश्ता पेड़ से/ कुछ भी टूट सकता है’। (प्र० १५)। 

समाज के विभिन्न वर्गों की मानवीय संवेदना को कवि ने इस बारीकी से दर्शाया है, जो दिखने में भले ही बहुत सरल व सहज लगती हों (‘सिरजना चाहता हूँ चोंच भर आकाश/ लाल लाल ......,/ बच्चे प्रतीक्षा में हैं’ (प्र० २९); ‘सीधे रास्तों पर चलना। अच्छा लगता है। सीधे चीड़, सीधी पत्तियां। गहराइयाँ भी ठीक सीधी/ इन सीधों के बीच से गुजरना/ अच्छा लगता है’ (प्र० ९३)), परंतु उन संवेदनाओं का प्रहार बहुत सटीक व गहरा होता सा प्रतीत होता है। कई कविताएं प्रकृति के प्रतीकों के माध्यम से समाज व राजनीतिक व्यवस्था पर एक ठोस प्रहार करती सी भी लगती हैं (‘मत काटो एक भी पेड़/ चीखना चाहता हूँ/ बीच चौराहे/ पेड़ की हत्या बंद हो/ (प्र० २५)), या फिर — ‘बड़े बड़े मालों/ चमकीली दुकानों/ में आग का गुवार/ मसल देने के लिए/ सड़क पर गुजरती अनगिनत कारें/ बहुत कमजोर है आज का दिन/ इतनी गरीबी और अमीरी इतनी/ इतनी भूख, लंबी डकार/ कैसे खा, पचा सकता है/ जब इतना सन्नाटा हो/ आँखों से लेकर स्कूल के टिफ़िन तक/ कैसे इतना शोर मचा सकते हैं आप/ भारत उन्नति कर रहा है?/ इंडेक्स न तो रोटी है/ न ही चूल्हे की आग/ पेट भरने के लिए लालीपाप?’ (प्र० ४१)। ये पंक्तियाँ ‘नक्सलवाद’ शीर्षक की एक लंबी कविता से हैं जो एक संवेदनशील व्यक्ति को विवश करती है, यह सोचने पर, कि आखिर, शरीर की भूख मानव को कहाँ से कहाँ पहुँचा देती है। कवि के शब्दों में यह कविता नपुंसक हुए बुद्धिजीवियों की आँखें खोलने का प्रयास है। 

जब कवि को सब कुछ खतरे में लगता है, — ‘खतरे में हैं जंगल की साँसे/ नदियां रुक रही हैं/ लगातार ....’ (प्र० १६), तो वह कोयल को कुछ इस तरह बुलाता है — ‘कोयल तुम आना जरूर/ कूकना लगातार/ बहुत कम लोगों ने सुना/ कम ही जानते होंगे/ कि कोयल बोलती है तो/ वृक्षों से नए कल्ले फूटते हैं/ फूटती हैं कलियाँ/ उछल-उछल कर नाचने लगती है हवा/’ ... ‘कोयल तुम आना जरूर/ पर छोड़ आना/ पूरा-का पूरा मैदानी मौसम/ लोभ आम्र-मंजरियों का/ फल से लदे-फदे वृक्षों का मोह/ छोड़ आना वहीं।/ (प्र० २२-२३)। और इस खतरे से आगाह करने व जीवन जीने की जद्दोजहद में भागते-भागते कवि शहर से गाँव जाने का संदेश बहुत ही सहज भाव से अभिव्यक्त करता है —‘थक कर गिरा आदमी/ पहुंचना चाहता है घर/ कच्चे रास्ते पर चलना/ घर पहुंचना होता है।‘ (प्र० ६७)। 

वृक्षों की जड़ों से बने पुल, मेघालय का प्रमुख पर्यटन केंद्र है, कम से कम मैंने कहीं भी इस प्रकार के पुल नहीं देखे। संभवतः इस पुल से प्रेरित कविता एक सार्थक व बहुमूल्य दर्शन को जन्म देती है —‘जिंदा जड़ें पुल होती हैं/ पुल हैं तो पार करती ही होंगी/ जड़ें जो सूख जाती हैं/ वे पुल भी नहीं होतीं/ वे पार भी नहीं करतीं/’ (प्र० २४)। वृक्ष, नदियां, जंगल; सूरजमुखी, चेरी ब्लासम, कटहल; काँग, आकाश, बादल; यह सब एक प्रतीक मात्र हैं जो कवि हृदय की प्रेरणा बन, जहां एक ओर अपने भौतिक स्वरूप का वर्णन कराती हैं, वहीं दूसरी ओर दर्शन का संदर्भ केंद्र बन जाती हैं। ‘परेशान जंगल/ इतना पीट रहा है जो अपना माथा/ कि शायद देख लिए हैं इसने कुछ संगी-साथी/ कुल्हाड़ियों की बेंट में/ बेंट लगी कुल्हाड़ियाँ खतरनाक होती हैं/ जंगल जानता है/ (प्र० १००)। ‘जंगल में बेचैनी’ शीर्षक की कविता की यह पंक्तियाँ, पर्यावरण संरक्षण व दिखावी विकास की पोल खोलती हैं। 

इस संकलन की सभी कविताओं में मेघालय के प्राकृतिक सौन्दर्य का एक सजीव चित्रण है। यह कविताएं बहुत ही सारगर्भित हैं व कुछ महत्वपूर्ण सम-सामयिक मुद्दों पर एक सशक्त टिप्पणी भी। सभी काव्य प्रेमियों के लिए यह काव्य संग्रह एक विशेष भेंट है। विशेष तौर पर मैं यह काव्य संग्रह उन सभी साहित्य प्रेमियों के लिए सुझाता हूँ जो पूर्वोत्तर क्षेत्र के नैसर्गिक सौन्दर्य के बारे मे जानना चाहते हैं व जिनकी रुचि इस क्षेत्र को समझने में है। 

खुब्लेई शिबुन माधवेन्द्र जी। 

—विजय कुमार श्रोत्रिय:, वाणिज्य विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

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