Sunday, September 13, 2020

पशोपेश

जहां होते हैं वहाँ नहीं होते हैं, हम 
और जहां होना चाहते हैं, 
वहाँ हो नहीं सकते।  

क्यों जो बोलना चाहते हैं, 
वह बोल नहीं सकते, 
और जो बोलते है, 
बोलना नहीं चाहते।

जो देखना चाहते हैं, 
देखने को नहीं मिलता, 
और जो देख रहे हैं, 
देखना ही नहीं चाहती आँखें।

जो खाना चाहते हैं, 
नहीं खा सकते, 
और जो खाने को मिलता है, 
उसे खाने का मन नहीं करता।

जीवन इसी पशोपेश में जिया जा रहा है 
कि जीते रहो, कभी तो सब कुछ जैसा चाहते हो, होगा। 
लेकिन क्या ऐसा वास्तव में ऐसा होता है, 
क्या सच में वह सब कुछ मिलता है, 
जिसकी चाहत होती है। 
वो खाने को मिलता है जो हम चाहते हैं खाना, 
या फिर 
समय के अनुसार हमारी चाहते भी बदलती जाती हैं।

हमें हमारी इच्छानुसार, स्वादानुसार, समयानुसार सब कुछ मिले, 
संभवतः असम्भव है।
कहीं पढ़ा था - 
जब आपको वह नहीं मिले जिसकी चाहत है 
या जिसको आप बेहद पसंद करते हैं,
तो जो मिला हो उसे पसंद करने लगें।  

व्यवहारिक रूप से तो यह कथन 
सफल जीवन जीने की दिशा प्रदान करता है 
व आकांक्षाओं एवं वास्तविकता के मध्य 
सामंजस्य बनाने में मदद करता है।  

परंतु दार्शनिक दृष्टि से सतत प्रयत्नशील रहने की सोच 
व प्रक्रिया को बाधित भी करता है।

अब प्रश्न है कि हम परिस्थितियों को अपने नियंत्रण में कैसे कर सकते हैं, 
क्या ऐसा वास्तव में सम्भव है।
कुछ सीमा तक शिक्षा से, ज्ञान से. कौशल से, कार्य कुशलता से 
ऐसा कुछ किया जा सकता है, 
जिससे हम कुछ-कुछ चीजें अपने वश में कर सकें, 
अपने नियंत्रण पर संतुष्ट हो सकें।
आध्यात्मिक दृष्टि से 
मनुष्य के वश में उसके कर्म से अधिक कुछ नहीं है।

जीवन यात्रा का यह एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है 
कि हमने ऐसा क्या किया 
जिससे हमें वह सब कुछ मिला जो हम चाहते थे।

सपने टूटते हैं, 
नए सपने जन्म लेते हैं, 
जीवन चक्र चलता रहता है 
पशोपेश में।

उपाय क्या है, 
जीवन को आनंद के साथ बिताने का, 
ऐसा क्या है जिससे हमें जो मिला हो, 
जो हम चाहें सब के बीच सामंजस्य हो जाए। 

हमारे स्वप्न और वास्तविकता में नज़दीकियाँ 
क्यों नहीं हो सकतीं हैं, 
हम हमेशा विकल्पों में क्यों उलझे रहना चाहते हैं, 
क्या वही जीवन को गति प्रदान करता है।

संतुष्टि कहाँ है, 
मन स्थिर क्यों नहीं हो सकता, 
जो है उसमें सन्तुष्टि क्यों नहीं हो सकती। 

आँखों के सपने 
हाथों से, हौसलों से, कर्मों से, 
क्यों नहीं सार्थक किए जा सकते हैं। 
हम जो जैसा है 
वैसा स्वीकार क्यों नहीं कर सकते, 
व्यक्ति अथवा परिस्थितियाँ। 

हम हमेशा एक बेहतर विकल्प की ओर क्यों देखते रहते हैं
क्या इसलिए 
क्योंकि हम मस्तिष्क को सोचने हेतु प्रयोग करते हैं
क्या सोचना भी नहीं चाहिए 
क्या हमें चुनने की स्वतंत्रता नहीं होनी चाहिए।

जीवन चलता रहता है,
कमोवेश 
इसी पशोपेश में। 

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